Saturday, July 18, 2009

नीद का निर्माण फ़िर फ़िर

This was a poem we learnt at school. Complete dickheads that we were then, we failed to recognise the sheer beauty of it. The resonance of each word which conveys so much meaning yet fits with almost criminal snugness into the meter completely escaped us. Shri Bachchan could move mountains with his words. Without force. They would bow down and make way.
Here goes.....

नीड का निर्माण फिर फिर
नेह का आव्हान फिर फिर

यह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँती घेरा

रात सा दिन हो गया
फिर रात आई और काली
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा

रात के उत्पात भय से
भीत जन जन भीत कण कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर फिर

नीड का निर्माण फिर फिर
नेह का आव्हान फिर फिर

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों में
उषा है मुसकराती
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती
एक चिडिया चोंच में तिनका लिए
जो जा रही है
वह सहज में ही पवन
उनचास को नीचा दिखाती

नाश के दुःख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता में
सृष्टि का नवगान फिर फिर

नीड का निर्माण फिर फिर
नेह का आव्हान फिर फिर

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